जीवन सारा वन जाय युद्ध उस रक्त अग्नि पी वर्षा म यह जायं सभी जो भाव शुद्ध अपनी शकामा से व्याकुल तुम अपने ही होवर विरुद्ध अपने को आवृत क्येि रहो दिखलाओ निज वृत्रिम स्वरूप वसुधा के समतल पर उन्नत चलता फिरता हो दभ स्तूप श्रद्धा इम ससृति को रहस्य व्यापर विशुद्ध विश्वासमयी सब कुछ देर नव निधि अपनी तुम से ही तो वह छली गयी हो वत्तमान से वचित तुम अपने भविष्य म रहो रद्ध सारा प्रपच ही हो असुद्ध । तुम जरा मरण मे चिर अशात जिसको अब तक समझे थे सब जीवन म परिवर्तन अनत अमरत्व वही अब भूलेगा तुम व्याकुल उसको कहो अत दुखमय चिर चिंतन के प्रतीक । श्रद्धा वचक बनकर अधीर मानव सतति ग्रह रश्मि रज्जु से भाग्य वाध पोटे लकीर 'कल्याण भूमि यह लोक' यही श्रद्धा रहस्य जाने न प्रजा अतिचारी मिथ्या मान इसे परलोक वचना से भर जा आशाआ मे अपने निराश निज बुद्धि विभव से रहे भ्रात वह चलता रहे सदैव श्रात ।" प्रसाद वाङ्गमय ॥५७६ ॥
पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६०३
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