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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६०५

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प्राची मे फैला मधुर संग जिसके मडल में एक कमल खिल उठा सुनहला भर पराग जिसके परिमल से व्याकुल हो श्यामल कलरव सब उठे जाग आलोक रश्मि से बुने उषा अचल मे आदोलन अमद करता, प्रभात का मधुर पवन सब ओर वितरने को मरद उस रम्य फलक पर नवल चित्र मी प्रक्ट हुई सुन्दर वाला वह नयन महोत्सव की प्रतीक अम्गन नलिन की नव माला सुपमा का महल सुस्मित सा बिखराता ससृति पर सुराग सोया जीवन का तम विराग। बिखरी अलकें ज्यो तर्क जाल वह विश्व मुकुट सा उज्ज्वलतम शशिखड सदृश था स्पष्ट भाल दो पद्म पलाश चषक से हग देते अनुराग विराग ढाल गुजरित मधुप से मुकुल सदृश वह आनन जिसमे भरा गान वक्षस्थल पर एकत्र धरे ससृति के सव विज्ञान शान था एक हाथ मे कम कलश वसुधा जीवन रस सार लिये दूसरा विचारो के नभ का था मधुर अभय अवलब दिये निवली थी त्रिगुण तरगमयी, आलाक वसन लिपटा अराल चरणो म थी गति भरीताल। प्रसाद वोङ्गमय ।।५७८॥