"इस विश्व कुहर मे इद्रजाल जिसने रच कर फैलाया है ग्रह तारा विद्युत नग्वत माल सागर की भीषण तम तरग सा सेल रहा वह महाकाल तब क्या इस वसुधा के लघु लघु प्राणी को करने को सभीत उस निष्ठुर की रचना कठोर केवल विनाश की रही जीत तब मूख आज तक क्यो समझे हैं सृष्टि उसे जो नाशमयी उसका अधिपति होगा कोई, जिस तक दुप वी न पुकार गयी सुख नीडो को घेरे रहता अविरत विपाद का चक्रवाल विसने यह पट है दिया डाल? शनि का सुदूर वह नील लाक जिसकी छाया सा फैला है ऊपर नीचे यह गगन शोक उसके भी परे सुना जाता कोई प्रकाश का महा ओक वह एक किरन अपनी देकर मेरी स्वतनता म सहाय वया बन सकता है ? नियति जाल से मुक्ति दान का कर उपाय।" X x "कोई भी हो वह क्या बोले, पागल बन नर निभर न करे अपनी दुबलता वल सम्हाल गतव्य माग पर पैर धरे मत कर पसार निज पैरो चल, चलने की जिसको रहे झोक उसको कब कोई सके रोक । प्रसाद वाङ्गमय ।।५८०॥
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