पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६१४

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आज सुनूं केवल चुप होकर, कोकिल जो चाहे कह ले, पर न परागो की वैसी है चहल-पहल जो थी पहले, इस पतयड की सूनो डाली और प्रतीक्षा की सच्या, कामायनि ! तू हृदय कडा कर धीरे वीरे सब सह ले । विरल डालियो के निकुज सर ले दुख के निश्वास रहे, उस स्मृति का समीर चलता है मिलन कथा फिर कौन रहे ? आज विश्व अभिमानी जैसे रूठ रहा अपराध बिना, किन चरणो को धोयेंगे जो अश्रु पलक के पार वहे । अरे मधुर हैं कष्ट पूण भी जीवन की बीती घडियो । जव निस्सवल होकर कोई जोड रहा विखरी कडियां, वही एक जो सत्य बना था चिर सुन्दरता मे अपनी, छिपा कही, तब कैसे सुलझें उलझी सुख दुख की लड़ियाँ । - विस्मृत हो वे बीती वातें, अब जिनमे कुछ सार नही, वह जलती छाती न रही अन वैसा शीतल प्यार नहीं । सत्र अतीत म लीन हा चली, आशा, मघु अभिलापायें, प्रिय को निष्ठुर विजय हुई, पर यह तो मेरी हार नहीं ! 1 वे आलिंगन एक पारी थे, स्मिति चपला थी, याज कहाँ ? और मधुर विश्वास । अरे वह पागल मन का मोह रहा । वचित जीवन बना समर्पण यह अभिमान अस्चिन का, कभी दे दिया था कुछ मैंने, ऐमा अब अनुमान रहा। स्वप्न L