"मे रूठू मां और मना तू, कितनी अच्छी बात कही, ले मै सोता हूँ अब जाकर, बालंगा में आज नही, पके फलो से पेट भरा है नीद नही सुलने वाली।" श्रद्धा चुम्बन ले प्रसन कुछ, कुछ विषाद से भरी रही। जल उठते हैं लघु जीवन के मधुर-मधुर वे पल हलके, मुक्त उदास गगन के उर में छाले वन पर जा झलके, दिवा श्रात आलोक रश्मिया नील निलय मे छिपी रही, करण वही स्वर फिर उस ससृति म वह जाता है गल के । प्रणय किरण का कोमल बघन मुक्ति बना बढता जाता, दूर, किन्तु कितना प्रतिपल वह हृदय समीप हुआ जाता । मधुर चादनी सी तद्रा जब फैली मूच्छित मानस पर, तब अभिन्न प्रेमास्पद उसमे अपना चित्र बना जाता। कामायनी सकल अपना सुख स्वप्न बना सा देख रही, युग-युग की वह विक्ल प्रतारित मिटी हुई बन लेख रही जो कुसुमो के कोमल दल से कभी पवन पर अकित था, आज पपीहा की पुकार बन नभ म खिंचती रेख रही प्रसाद वाङ्गमय ॥५९०॥ -
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