पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६१६

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इडा अग्नि-ज्वाला सी आगे जलती है उरलास भरी, मनु का पथ आलाक्ति करती विपद नदी मे बनी तरी, उनति का आरोहण, महिमा शैल श ग सी, श्राति नही, तीव्र प्रेरणा की धारा सी वही वही उत्साह भरी। . वह सुन्दर आलोर किरन सी हृदय भेदिनी दृष्टि लिये जिधर देखती, सुल जाते हैं तम ने जो पथ बंद किये ! मनु की सतत सफलता की वह उदय विजयिनी तारा थी, आश्रय की भूखी जनता ने निज श्रम के उपहार दिये। मनु का नगर बसा है सुन्दर सहयोगी है सभी बने, दृढ प्राचीरो मे मदिर के द्वार दिखाई पडे घने, वर्षा धूप शिशिर म छाया के साधन सम्पन्न हुये, पेतो मे हैं कृपक चलाते हल प्रमुदित श्रम स्वेद सने । उधर धातु गलते, बनते हैं आमूपण 'ओ' अस्न नये, कही साहसी ले आते है मृगया के उपहार नये, पुष्पावलिया चुनती है वन-कुसुमो की अघ विक्च क्ली, गघ चूण था लोन कुसुम रज, जुटे नवीन प्रसापन ये । घन के आघातो से होती जो प्रचड ध्वनि रोप भरी, तो रमणी के मधुर कण्ठ से हृदय मूच्छना उधर ढरी, अपने वग बना कर श्रम का करते सभी उपाय वहा, उनको मिलित प्रयत्न प्रथा मे पुर की श्री दिखतो निखरी। स्वप्न ॥ ५९१॥