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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६१७

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देश काल का लाघव करते वे प्राणी चचल से हैं, सुख साधन एकत्र कर रहे जो उनके माल मे है बढे ज्ञान व्यवसाय, परिश्रम बल की विस्तृत छाया मे, नर प्रयल से ऊपर आवे जो कुछ वसुधा तल में हैं। मुष्टि बीज अकुरित प्रफुरिलत सफल हा रहा हरा भग! प्रलय वीच भी रक्षित मनु से वह फैला उत्साह भरा आज स्वचेतन प्राणी अपनी युशल कल्पनाये परके, स्वावलम्ब की दृढ धरणी पर खडा, नहीं अब रहा डरा। श्रद्धा उस आश्चय-लाक म मलय-बालिका सो चलती, सिंहद्वार के भीतर पहुंची, खडे प्रहरियो को छलती, ऊंचे स्तभो पर बलभीयुत बने रम्य प्रासाद वहा धूप धूम सुरभित गृह, जिनम थी आलोक शिया जलती। स्वण क्लश शोभित भवनो से लगे हुए उद्यान बने, ऋजु प्रशस्त पथ बीच-बीच म, कही लता के कुन्ज घने जिनमे दम्पति समुद विहरते, प्यार भरे दे गलवाही, गूज रहे ये मधुप रमीले, मदिरा-मोद पराग सने । देवदारु के वे प्रलम्ब भुज, जिनमे उलझी वायु-तरग, मुखरित आभूषण से क्लरव करते सुन्दर बाल विहग आश्रय देता वेणु वनो से निकली स्वर लहरी ध्वनि को, नाग कैसरो को क्यारी म अन्य सुमन भी थे बहुरग ! प्रसाद वाङ्गमय ।। ५९२॥