पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६४

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- दवा मनु ने नतित नटेश, हत-चेत पुकार उठे विशेप, 'यह क्या । श्रद्धे । वस तू ले चल, उन चरणो तक दे निज सबल सर पाप-पुण्य जिसमे जल-जल, पावन वन जाते है निमल, मिटते असत्य से ज्ञान लेश, समरस असण्ड आनन्द वेश" और तब आसू की 'चेतना लहर' अपनी महाव्याप्ति में समुद्र बन जाती है- वैसे अभेद सागर म प्राणो का सृष्टिक्रम' लिये जीवा अब लहर भान रह जाता है । नयाभूत अतस्तरग जीवन फिर पूणवोध की भूमि पर समष्टिगत चेतन समुद्र में समरमता म रसमयोदशापन होता है । एव, अभिव्यक्ति की प्रक्रिया किंवा व्यक्तीकरण मे जो स्वभाव के भावा कार खडे होते हैं वे फिर व्यक्ति पदवाच्य हो जाते हैं। व्यक्ति शब्द स्वय अपनी कथा कह रहा है। विश्वचेतना को वह पूर्णकामावस्था होती है जहा। चेतन समुद्र म जीवन लहरो सा विसर पड़ा है, कुछ छाप व्यक्तिगत, अपना निमित्त आकार खड़ा है। आसू की 'चेतना लहर' कामायनी के "चेतन समुद्र" म परिणत हा--एक महाविम्ब प्रस्तुत करती है । भारतीय काव्य के धगतल पर जिन व्यग्योदित भावाकारो के प्रमग म 'विम्ब विधान' का कथन हो रहा हे उसे पश्चिमीय 'इमेजरी' के अथ म प्राय ले लिया जाता है जो कदाचित् भ्रान्तिमूलक है वहा ऐद्रिक और प्राणिक स्तरो के अतिरिक्त विम्बा को अन्य भावभमि दुलभ है और, मानम वरातल के बाद तो विम्ब चमत्कृति वहा अनुभेय भी नहीं । जब कि भारतीय चिन्तन और आगे बढ विज्ञान एव आनन्द भूमि की अगला खोल बिम्ब और उम अनुकार पाता है, यह उसकी दृष्टि-परक चरम उपलब्धि है जहाँ पहुँच कर कहा जाता है 'आस्वा दनात्मानुभवो रम काव्याथमुच्यते' । एक दृष्टि ( माण्डूक्य कारिका) आत्मानुभूति या साक्षात्कार के पथ मे 'रसास्वाद' को बाधक मानती है उम दृष्टि के दृष्ट रस मे 'रसोवै स' की वह विराट 'स' सत्ता (तैत्तिरीय) न होगी अपितु विक्रपाधिवासित रसास्वाद की कोटिया होगी जिनमे अद्वयानुभूति न पा कर आचाय गौडपाद में प्रज्ञया नि म्सग हाने की ऐसी व्यवस्था का मिलना कुछ अस्वाभाविक नहीं । प्राक्कथन ॥७३॥