पश्चिमोय काव्यशास्त्र प्लेटो से चल कर अधुनापि एक निणप- दृष्टि पाने के लिये प्रयोगावस्था से ससरित हो रहा है यह वात बय है कि काव्य प्रयोजनीयता के प्रमग मे प्लेटो की लोकमगल परक एकायनी दृष्टि आगे चल विशीर्ण हुई, कारण प्लेटो की समाज-करपना सामान्य नही बग निष्ठ रही और भात्मानुभूति को वह व्यापक्ता भी वहां नही मिली जो यहाँ सुलभ रही। वैमी दशा मे जीवन दृष्टि-अनुकूलित तत्व चितन का ही वहां प्रसार हो सका तत्व विचारपरक जीवन दृष्टि का जागरण न हो पाया जो विकल्प डोर से बधे काव्य को सकल्प विन्दु तक अग्रसर करती। रोक्मगल की भारतीय परिभाषा सदैव से आनह्म- स्तम्ब स्फोत रही । अस्तु, इस प्रमग की विवेचना म जाने से व्योरे तथा विपया तर का भय है । कुतकोय विवेचनो के आयाम को तुलना म भी 'इमेजरो' का मूल्याकन अल्प ही बैठता है। मस्कृत काव्य शास्त्र मे यह पिम्वभाव अलकारत स्वीकृत हुआ है जहा बिम्ब प्रतिविम्ब चमत्कृति दृष्टात-अलकार पदनाच्य होता है (माहित्यदपण )। किचिदन्तरेण काव्यदपण के निदशन अलकार द्वारा यह नामान्तरित है । सुप्त वाच्याथ भार जाग्रत व्यग्याय म विम्ब इगनीय है स्वनि सम्प्रदाय इसका क्थन अपने ढग स करता है । कि तु, आज इस बिम्ब को शव्दत और भावत जैसे वाच म ग्रहण किया जा रहा है वह भारतीय काव्यशास्त्र के उतना समीप नही जितना क्राशे या जुग प्रभृति के निकट है। यह भी ध्यातव्य होगा कि सभ्यता और समाज के विकास के साथ साथ उपमान का क्षेत्र भी विस्तत हुआ सुतराम भारतीय काव्यशास्त्र को अपने मागका को अनुकूलत विकसित विस्तृत करना होगा। प्राय अपरोक्ष बिम्ब के आधार पर परोक्ष बिम्ब कल्प्य होते हैं । इन्द्रियवग के प्रमातृपद पर अधिष्ठित हो विषय-वग से व्यवहार की दशा म और मनस् के प्रमाता स्थानीय हा उसके इन्द्रिय विषय बग से बहिमुख-व्यवहार की दशा में ऐकन्द्रि निम्न का स्थान है मन के बहिमुखत्व की न्यूनतरात्मिक्ता म जहा आतर हेतु की जिज्ञासा का जागरण होता है वहा मानम बिम्ब का उदय सम्भव है । अतस्थ सक्रियता और बहिरग निष्क्रियता म इन्द्रिय चग की मनात्मुसी दशा स्वप्नावस्था ( साधारण ) पदवाच्य है। इस साधारण स्वप्नावस्था के अतिरिक्त एक विशेष स्वप्नावस्था वह हाती ह जहा इन्द्रिय और विषय के वर्गों के समाहार पूवक मन इन्द्रियोन्मुग्व नहीं अपितु मात्मान्मुख रहता है ( गर्भेचित्तविकासाद्विशिष्ट विद्यास्वप्न ) तन, आत्मा पमाता रूप म वैसे मन से अन्तव्यवहार की दशा म होता है यहाँ भी एक विम्ब भूमि सम्भा है किन्तु मन के आत्मोन्मुखी प्रसाद वाङ्गमय १७४॥
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