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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६४५

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रूठ गया था अपनेपन से अपना सकी न उसको मैं, वह तो मेरा अपना ही था भला मनाती क्सिको में। यही भूल अब शूल मदृश हो साल रही उर मे मेरे, कैसे पाऊँगी उसको में कोई आपर कह दे रे।" इडा उठी, दिख पडा राजपथ धुंधली सी छाया चलती, वाणी में थी करुण वेदना वह पुकार जैसे जलती। शिथिल शरीर वसन विश खल क्वरी अधिक अधीर खुली, छिन्नपत्र मकरन्द लुटी सी ज्यो मुरझायी हुई कली । प्रसाद वाङ्गमय ।। ६२२॥