पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६४८

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इडा चक्ति, श्रद्धा आ बैठी वह थी मनु को सहलाती, अनुलेपन सा मधुर स्पश था व्यथा भला क्यो रह जाती? उस मूच्छित नीरवता मे कुछ हलके से स्पन्दन आये, आँखें सुलो चार कोनो म चार विन्दु आवर छाये। उघर कुमार देयता ऊंचे मन्दिर, मडप, येदी को, यह सब क्या है नया मनोहर पैसे ये हाते जी पो? मां ने पहा बरे आ तू भी देय पिता हैं पटे हुए, 'पिता ! भा गया ' यह कहते उउ रोएं गहे निपद ॥६२५॥