पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

भार की प्रग्वरता अथवा आत्मा के ही तीन भाकपण मे, मन का रिलय भी सम्भावित है, फिर वैसी दशा मे पिम्प का प्रश्न नही आत्मा के ऐसे प्रमाता रूप का उदय निजानुभूति को गाढ सकरपमयता मे ही सम्भव है जहा कहा जा सकता है 'हम रोल एक हमी हैं और जिसकी अनुभूति स्वयमेव एक महाविम्ब है-काव्य है काव्य के इस स्प और ऐमी प्रयोजनीयता का विनियोग 'आस्वादनात्मानुभवो रम काव्यार्थमुच्यते' द्वारा इगित है। किन्तु, इन सभी स्तरो के विम्ब-सन्दभ म विधान अथवा निर्माण के म्वामित्व को कल्पना और जल्पना महकृति के ही माक्ष्य दगे | प्रसाद भारती की दृष्टि म यह सामान्य-सम्पदा है कोई 'निजी जायजाद' नहीं । वह भी निन्मयो ज्ञान-धारा की सीरी-सत्ता है जो माया के इन्द्रधनुपी चीर मे लिपटी एक भगिमा मी झलक जाती है उप क्षणोपला भगिमा का अभिव्यक्ति के कुछ उपस्करणा से सजा देने मान से उस मूर वस्तु पर जा स्वत एक अनुवृति है, अपना 'कजा मुग्वालिफाना' मानते हुये क्या अपने का ही उलित नही किया जा रहा है । भावावृष्टि और उमवे हठपूवक मघट्ट म बने शब्द-रेखा के चिन और सहजादित प्राप्त विम्ब के शब्दानुसार मे नीरक्षीर विवेक मनम कोई यत्र अभी प्रस्तुत नही हो पाया। विम्यानुकार की प्राजलता पर काव्य रक्षणा का उत्स्प निभर करता है। किन्तु वस्तुत यह विम्ब तो नहीं अपितु प्रतिबिम्ब कहा जा सकेगा जो काव्य-सरस्वतो वैसर-स्तर पर अथवा मातृका-मुकुर म देती है। सुतराम्, एतदथ भी अभिधान ही उपयुक्त शब्द हो सकता है, विधान अथवा निर्माण नहीं । समस्त ज्ञान निविशेपत मध्यमा वाक् म स्फुरित रहकर यथा काल मातृका म अधिष्ठान ग्रहण करते हैं। एव बोधात्मक ज्ञान की अनुभव-मत्ता वागात्मक रूप को अगीकार कर देती है, फिर बैसर व्यवहार मे उसका वागथ विवेक हाता है। निम्ब एमे बोवात्मक ज्ञान के वागोन्मुखता की प्रक्रिया का मध्यवर्ती प्रसग है। जिनका प्रति स्पण कम और सस्कार के मध्य स्फुरित वामना, निवन्धित मान करती है। और इस स्तर पर अभिव्यक्ति म जा प्रसाधन प्रस्तुत किये जाते ह वे ही अपने और निजी अथवा मौलिक कहे जा सकते हैं, मूलवस्तु नही-जिसे विम्ब रहा जाता है। एक धुंधली अया का तद्वत् अस्पष्ट अवतार और मुकुर पर पड़ने वाले रश्मि-व्यूह का प्रतिविम्व वडा अतर रखता है। जहा रश्मि-व्यूह प्रावतथन ॥५॥