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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६५०

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चिर विपाद विलीन मन की, इस व्यथा के तिमिर वन की, मैं उपा सी ज्याति रेखा, कुसुम विकसित प्रात रे मन । जहा मर ज्वाला धधकती, चातको कन को तरसती, उन्ही जीवन घाटिया की, मै सरस बरसात र मन । पवत की प्राचीर मे रुक, जला जोवन जी रहा झुक, इस झुलझते विश्व दिन की, मै कुसुम ऋतु रात रे मन । चिर निराशा नीरधर से, प्रतिच्छायित अश्रु सर मे, मधुप मुखर मरद मुकुलित, मै सजल जलजात रे मन निर्वेद ॥६॥