पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६५६

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हृदय बन रहा था सीपी सा तुम स्वाती की बूंद बनी, मानस शतदल झूम उठा जब तुम उसमे मकरन्द बनी। तुमने इस सूखे पतझड मे भर दी हरियालो कितनी, मादकता तृप्ति बन गयो वह इतनी । मैंने समझा विश्व, कि जिसमे दुख की आधी पीडा की लहरी उठती जिसमे जीवन मरण वना या बुदवुद की माया नचती। वहो शान्त उज्ज्वल मङ्गल सा दिग्खता था विश्वास भरा, वर्षा के कदम्ब कानन सा सृष्टि विभव हो उठा हरा। निर्वेद