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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६५७

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भगवति । वह पावन मघृ धारा । देख अमृत भी ललचाये, वही, रम्य सौंदय्य शैल से जिसमे जीवन घुल जाये कथा, मध्या अव ले जाती मुझमे ताराओ को अक्थ नीद सहज ही ले लेती थी सारे श्रम की विक्ल व्यथा । सफल कुतूहल और कल्पना उन चरणो से उलझ पडी, कुसुम प्रमन्न हुए हंसते से जीवन को वह धन्य घडी। स्मिति मधुराका थी, श्वासो से पारिजात कानन खिलता, गति मरन्द-मथर मलयज सी स्वर मे वेणु कहाँ मिलता। प्रसाद वाङ्गमय ॥ ६३४॥