पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

वा प्रतिविम्ब अन्य भित्ति को अपित करने की क्षमता रखता है वहा छाया अपनी अस्पष्टता म विलीन हो जाने को बाध्य है। 'काव्य और कला' निवन्ध म काव्य का 'जात्मा को सकल्पात्मक अनुभूति और व्यक्ति निरपक्ष बताते कहा गया है-'इसी कारण हमारे साहित्य का आरम्भ काव्यमय है । वह एक द्रष्टा कवि का सुन्दर दशन है। सत्पात्मक मल अनुभूति कहने से मेरा जो तात्पय है उसे भी समय लेना होगा। आत्मा की मान शक्ति की वह असाधारण अवस्था, जो श्रेय सत्य को उमके मूल चारत्व म सहसा ग्रहण कर लेती है, काव्य मे मफल्पात्मक अनुभूति कही जा सकती है। काई भी यह प्रश्न कर सक्ता है कि सत्पात्मक मन की सव अनुभूतिया श्रेय और प्रय दाना ही मे पूर्ण होती है, इसम क्या प्रमाण है ? नितु इमलिये माय-ही माथ अमाधारण अवस्था का भी उत्ख किया गया है। अमावारण अवस्था युगो की ममष्टि अनुभूतिया म अन्तनिहित रहती है, क्योकि सत्य अथवा श्रेय ज्ञान कोई व्यक्तिगत मत्ता नही, वह एक शाश्वत चेतनता है, या चिन्मयी ज्ञान पारा है, जो व्यक्तिगत स्थानोयो द्रा के नष्ट हो जाने पर भी निनिशेप प से विद्यमान रहती है। प्रकाश की किरणारे ममान भिन्न भिन सस्कृतियो के दपण म प्रतिफलित होकर नालोक को सुन्दर और कज्जस्वित बनाती है ।' ज्ञानालो की आनन्दमयी रश्मिया मोदय बाध को निजानन्दमयी परिणति होकर निरपक्षत विकल्पमयी मस्कृतिया का अपनी अचल मकरपमयता बार भार सम्पदा से ओतप्रोत कर देती है जिनकी अवधारणा कवि कम की एक अमापारण आर अप्रमेय अवस्था है प्रसाद वाग्मय की मूलचतना इस अवस्था म भावत और अनुभावत अवस्थित है। जा सकल्पात्मर मूल अनुभूति तत्त्वत , भावत आर पदाथत 'श्रेय सत्य का उमो मूल चाम्त्व म सहमा ग्रहण' पर प्रसाद वाङ्गमय की काव्यभूमि का उन्मीलन पिये है वही अनुभूति अपने निबन्ध नान, अनवच्छिन्न जाध एव स्वतन्त्र प्रकाश के समन्वित प्रती "ध्रुवतारा" द्वारा "शेषगीत" म शब्दित हा जपन नायतन म प्रमाद वाङ्गमय क भावजगन की समची अभिन्यक्ति अक्स्थ किये है। यह प्राक्कथन बाध्यत एक असामा य त्वरा म प्रस्तुत हुआ, जिसमे विषय का सक्षिप्त विवचा हो हा पाया जा यथा कयचित् अपनी कभी आर त्रुटियो वे सहित विनम्रभावेन सुधीजना के सम्मुख उपस्थित है। बुद्धपूर्णिमा, २०३२ वै० रत्नशकर प्रसाद प्रमाद वाङ्गमय ।।७६॥