पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६६०

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दिन वीता रजनी भी आयी तद्रा निद्रा सग लिए, इडा कुमार समीप पड़ी थी मन की दवी उमग लिये। श्रद्धा भी कुछ खिन थकी सी हार्थ को उपधान किए, पडी सोचती मन ही मन कुछ, मनु चुप सब अभिशाप पिये- सोच रहे थे, "जीवन सुख है? ना, यह विकट पहेली है, भाग अरे मनु | इन्द्रजाल से कितनी व्यथा न झेली है? यह प्रभात को स्वर्ण किरन सी झिलमिल चचल सी छाया श्रद्धा को दिखलाऊँ कैसे यह मुख या कलुषित काया। निर्वेद ॥६३९।।