पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६६६

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यह लोचन गोचर सफल लोक, ससृति के कल्पित हप शोक, भावोदधि से किरनो के मग, स्वाती कन से बन भरते जग, उत्थान पतन मय सतत सजग झरने झरते आलिगित नग, उलझन की मीठी रोक टोक, यह सब उसकी है नोक-झोक । जग, जगता आसें किये लाल, सोता ओढे तम नीद जाल, सुरधनु सा अपना रंग बदल, मृति, ससृति, नति, उम्रति मे ढल, अपनी सुपमा मे यह झलमल, इस पर खिलता झरता उडुदल, अवकाश सरोवर का मराल, कितना सुन्दर कितना विशाल । - दशन।। ६४५॥