पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६६८

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बोली "तुमसे कैसे विरक्ति, तुम जीवन की अन्धानुरक्ति, मुझसे बिछुडे को अवलम्बन देकर तुमने रक्खा जीवन, तुम आशामयि | चिर आकर्षण, तुम मादकता की अवनत घन, मनु के मस्तक की चिर अतृप्ति तुम उत्तेजित चचला शक्ति । मै क्या दे सकती तुम्हे मोल यह हृदय । अरे दो मधुर बोल, में हंसती हूँ रो लेती मैं पाती हूँ खो देती इमसे ले उसको देती मै दुख को सुख कर लेती हूँ, incarncconcconca अनुराग भरी हूँ मधुर घोल चिर विस्मृत सी हूँ रही डोल। दर्शन ॥६४७॥