पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तो क्या में भ्रम मे थी नितान्त महारचध्य असहाय दान्त, प्राणी विनाश मुख मे अविरल चुपचाप चलें होकर निरल ! सघप धर्म का मिथ्या बल ये शक्ति चिन्ह, ये यज्ञ विफल, भय की उपासना प्रणति प्रान्त । अनुगामन को छाया अशान्त ! विग पर मैंने धोना मुहाग, ह देवि! तुम्हारा दिव्य गग, में मान रिंचर पाती है, अपने वा नही गुहाती है, में जो पुछ भी स्वर गाती हैं, यह म्यप नही सुन पाती है, दामा,नदा याना गिग गोपी बननना उठ जाग!' प्रगर याहमर ॥५०॥