पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६७०

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"है रुद्र रोष अव तक अशान्त, थद्धा बोली, वन विपम ध्वान्त । सिर चढी रही। पाया न हृदय, तू विकल कर रही है अभिनय, अपनापन चेतन का सुखमय, खो गया, नही आलोक उदय । सब अपने पथ पर चले शान्त, प्रत्येक विभाजन बना भ्रान्त | जीवन धारा सुन्दर प्रवाह, सत, सतत, प्रकाश सुखद अथाह, ओ तकमयी | तू गिने लहर, प्रतिबिम्बित तारा पकड ठहर, तू: रुक रक देखे आठ पहर, वह जडता की स्थिति भूल न कर, सुख दुख का मघुमय धप छांह, तू ने छोडो यह सरल राह । दशन ॥६५१॥