पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६७८

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"प्रिया अब तक हो इतने सशक, देकर कुछ कोई नही रक, यह विनिमय है या परिवतन, बन रहा तुम्हारा ऋण भव धन, अपराध तुम्हारा वह बधन- लो बना मुक्ति, अब छोड स्वजन- ? निवासित तुम, क्यो लगे डक दो लो प्रसन्न, यह स्पष्ट अक।" आह स्तिनी उदार, यह मातृमूर्ति है निविकार, "तुम देवि! है सवमगले। तुम महती, सवका दुख अपने पर सहती, कल्याणमयी वाणी क्हती, तुम क्षमा निलय मे हो रहती, मैं भूला हूँ तुमको निहार- नारी सा ही वह लघु विचार। दर्शन॥६५९॥