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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६८०

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इस देव द्वन्द्व का वह प्रतीक- मानव | कर ले सब भल ठीक, यह विप जो फैला महा विपम, निज कर्मोनति से करते सम, सब मुक्त बनें, उनका रहस्य हो शुभ सयम, काटेंगे भ्रम, गिर जायेगा जो है अलीक, चल कर मिटती है पडी लोक।" वह शून्य असत या अधवार, अवकाश पटल का वार-पार, बाहर भीतर उन्मुच सधन, था अचल महा नीला अजन, भूमिका बनी वह स्निग्ध मलिन, थे निनिमेष मनु के लोचन, इतना अनन्त था शूय सार, दोसता 1 जिसके पर पार । दर्शन ॥६६१॥