पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६८८

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"कहाँ ले चली हे अब मुझको श्रद्धे । में थक चला अधिन हूँ, साहस छूट गया है मेग निस्सपल भग्नाग पथिक हूँ। लौट चलो, इस वात चक्र से में दुवल अब लड न सकूँगा । श्वाम स्त करने वाले इस शीत पवन से अड न सकूँगा। मेरे हा वे सब मेरे थे जिनसे रूठ चला आया हूँ, वे नीचे छूटे सुदूर पर भूल नहीं उनको पाया हूँ।" वह विश्वास भरी स्मिति निश्छल श्रद्धामुख पर झलक उठी थी, सेवा कर - पत्लव मे उसके कुछ करने को ललक उठी थी। रहस्य ॥ ६६९॥