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दे अवलब, विकल साया या कामायनी मधुर स्वर वोली, हम वढ दूर निकल आये अव करने का अवसर न ठिठोली। दिशा विकम्पित, पल असीम है यह अनत सा कुछ कार है, अनुभव करते हो, वालो क्या पदतल मे सचमुच भूधर है ? निराधार हैं, किन्तु ठहरना हम दोनो को आज यही है, नियति खेल देयूँ न, सुनो अब इसका अन्य उपाय नही है। झाई लगती जो, वह तुमको ऊपर उठने को है कहती, इस प्रतिकूल पवन धक्के को झोक दूसरी ही आ सहती। थात पक्ष, पर नेत्र बन्द बस विहग युगल से आज हम रहे शून्य, पवन बन पख हमारे हमको दें आधार, जम रहे । प्रसाद वाङ्गमय ।। ६७० ॥