पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/६९३

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घूम रही है यहाँ चतुर्दिक चल चियो सो गसृति छाया जिस आलोप विन्दु को घेरे वह बैठी मुसक्याती माया । भाव चक्र यह चला रही है इच्छा यो रथ-नाभि घूमती नव रस भरो अराएँ अविरल चमवाल यो चक्ति चूमती । यहाँ मनोमय विश्व पर रहा रागारण चेतन उपासना, माया राज्य । यही परिपाटी पाश पिछा कर जीव फांसना । ये अशरोरी रूप, सुमन से केवल वण गघ म फूले, इन अप्सरियो पी तानो के मचल रहे है सुदर झूले । भाव भूमिमा इसी लोक की जननी है सब पुण्य पाप की ढलते सन, स्वभाव प्रतिकृति बन गल ज्वाला से मधुर ताप की । प्रसाद वाङ्गमय ॥ ६७४।।