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अस्ति नास्ति का भेद, निरकुश करते ये अणु तक युक्ति से, य निस्सग, किन्तु कर लत कुछ सम्बन्ध विधान मुक्ति से । यहा प्राप्य मिलता है केवल तप्ति नही पर भेद वाटती, बुद्धि, विभूति सरल सिक्ता सी प्यास लगी है आस चाटती । न्याय, तपम, ऐश्चय मे पगे ये प्राणी चमकीले लगते । इस निदाघ मर म सूसे से स्रोतो के तट जैसे जगते । मनोभाव से वार्य बम का मम-तोग्न मे दत्त चित्त से ये निस्पृह न्यायासन पाल चून न सक्ते तनिक वित से। अपना परिमित पात्र लिये ये वंद बूंद वाल निझर से मांग रहे हैं जीवन का रस बैठ यहां पर यजर अमर से। प्रमार याङ्गमय ॥६८०॥