पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/७१२

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एक मनस्वी "सुनती हूँ था वहां एक दिन आया, वह जगती की ज्वाला से अति विकल रहा झुलसाया। उसको बह जलन भयानक फैली गिरि अवल मे फिर, दावाग्नि प्रग्वर लपटो ने कर दिया सधन बन आस्थिर थी अर्धागिनी उसी की जो उसे खोजती आयी, यह दशा देख, करुणा की- वर्षा हग मे भर लायी। वरदान बने फिर उमके आंसू करते जग मगल, सब ताप शात होकर, वन हो गया हरित सुख शीतल । गिरि निर्झर चले उछलते छायो फिर से हरियाली, सूखे तर कुछ मुमक्याये फूटी पल्लव में राली। मानंद ।। ६२१॥