सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/७१३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अब बैठे वे युगल वही ससति की सेवा करते, तोष और देकर सब की दुख ज्वाला हरते । है वहा वहा महाह्रद निमल जो मन की प्यास बुझाता, मानस उसको कहते हैं सुस पाता जो है जाता।" "तो यह वृप क्या तू यो हो वैसे ही चला रही क्यो बेठ न जाती इस पर अपने को थवा रही है।" रही है, प्रमाद वागमय ।। ६९२।।