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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/७१६

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सध्या समीप आयी थी उस मर के, वल्क्ल वसना, तारो से अलक गुंथो थी पहने कदव को रशना। खग कुल किलकार रहे थे कलहस पर रहे कलरव, विनरिया बनी प्रतिध्वनि लेती थी ताने अभिनव । मनु बैठे ध्यान निरत थे उस निमल मानस तट मे, सुमनो की अजलि भर कर श्रद्धा थी खडी निकट मे। श्रद्धा ने सुमन बिखेरा शत शत मधुपो का गुजन, उठा मनोहर नभ मे मनु तमय बैठे उन्मन । भर पहचान लिया था सब ने फिर पैसे अब वे रकते, वह देव-द्वन्द्व युतिमय था फिर क्यो न प्रणति मे झुकते।