पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/७१७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

तब वृषभ सोमवाही भी अपनी घटा-ध्वनि करता, वढ चला इडा के पीछे मानव भी था डग भरता। हा इडा आज भृली थी पर क्षमा न चाह रही थी। वह दृश्य देखने को निज हग युगल सराह रही थी। चिर मिलित प्रकृति से पुलकित वह चतन पुरुष पुरातन, निज शत्ति तरगायित था आनद - अवु - निधि शोभन । भर रहा अक श्रद्धा का मानव उसको अपना वर, था इहा शीश चरणो पर, वह पुलक भरी गद्गद् स्वर- बोलो-"मैं धय हुई हूँ जो यहाँ भूल कर आयी, हे देवि । तुम्हारी ममता बस मुझे खीचती लायो। प्रसाद वाङ्गमय ।। ६९६ ॥