पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/७१९

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यहा है कोई शापित न तापित पापी न यहा है, वसुधा समतल है समरस है जो कि जहा है । जीवन वसुधा समुद्र मे चंतन जीवन लहरो सा बिखर पड़ा है, कुछ छाप व्यक्तिगत, अपना निर्मित आकार खडा है। इस ज्योत्स्ना के जलनिधि मे वुवुद् सा रूप बनाये, नक्षत्र दिखायी देते अपनी आभा चमकाये। वैसे अभेद सागर मे प्राणो का सष्टि क्रम हैं, सव म घुल मिल कर रस मय रहता यह भाव चरम है। अपने दुख सुख से पुलकित यह मूत विश्व सचराचर, चिति वा विराट वपु मगल यह सत्य सतत चिर सुदर । प्रसाद वाङ्गमय ॥६९८॥