पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/७२०

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सब की सेवा न परायी वह अपनी सुख ससृति है, अपना ही अणु अणु कण कण द्वयता ही तो विस्मृति है। में की मेरी चेतनता सवको ही स्पश किये सी, सब भिन्न परिस्थितियो की है मादक चूंट पिये सी। जग ले ऊपा के हग मे सो ले निशि की पलको मे हां स्वप्न देख ले सुन्दर उलझन वाली अलको मे- चेतन का साक्षी मानव हो निर्विकार हसता सा, मानस के मधुर मिलन मे गहरे गहरे धंसता सा। सव भेद भाव मुलया पर दुम्प गुप यो दृश्य बनाता मानय यह रे। 'यह में हैं' बह विश्य गोड बन जाता।" आद॥६९९॥