पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/८६

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कछुक वर पर कण्व-चरण पर निज सिर नाई। करि प्रणाम कर जोरि, खडे भै विधुकुल राई ।। कुशल पूछ पुनि कण्व, दियो आशीप अनुपम । भरतहु पुनि की ह्यो प्रणाम, लहि मोद महातम ॥ शकुन्तला सो पालित तब, वह मृग तह भायो । सिर हिलाई अरु चरण चूमि आनन्द जनायो। माधवि रता मनोहर को निज करते परस्यो। वह तप-वन तव अधिक मनोरम ह सुचि दरस्यो ।। यज्ञ-भूमि को करि प्रणाम, आनन्द समैठे। पूर्व मिलन के कुज माहि, कछु छन सर बैठे ।। शकुन्तला दुष्यन्त, भरत, मालिनि के तीरन । वन-वामिनि वाला युग के सँग लागी बिहरन ॥ प्रियम्बदा मुख चूमि भरत को लेत अक मे। शकुन्तला अनुसूया सँग बिहरत निशक में। निजि बीते दिवसन की सुमधुर कथा सुनावत । चुप है ये दुष्य त सुनत, यति ही सुख पावत ॥ सरल-स्वभावा बन-बासिनि, वे सर वरपाला। क्थानुकूल सुधारत भाव-अनेक रसाला ।। पति सा बिछुरन-मिलन समय को कहि वहु वातें। चिर दुखिया आनन्दित ह सब मोद मनाते॥ प्रियवदा तव दुष्यन्तहि दोन्हा उराहनो। "महा परम धाम्मिक, तेरी है बहु सराहनो। शकुन्तला को शाप हेतु विस्मृत तुम कीन्हो । याही वन हम रहो, खोज हमरो हू लोन्हो? "अहो हात है अधिक निठुर र सर, नारी सो। जो लो मुस सामुहे बहें तो लो प्यारी मो ।। नहिं तो पोन वहा को, मो, पासा नाते । वह दिन पे जो मिले, तरी पूछी नहिं वाते ॥" अनुसूया हेमि बोली-"ये ता अति सूघे हैं। इनको यहै स्वभान पहा यामे तू पहें ।। गन्तला मुगरयाइ पह्यो-"जाने दे सपियो। इनवे भर वातन को अपने हिय म रपियो । शिवाधार ॥२१॥