पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/८७

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अव यह मेरी एक विनय धरि ध्यान सुो तू । इनके विमल चरित्रन को हिं नेव गुने तू ॥ जामें फिर नहिं विछुरै, सब यह ही मति ठानो । सदन हमारे सग चलो अति ही सुस मानो।" यज्ञ प्रज्ज्वलित वन्हि, लसे सव ही प्रणाम क्यि । कण्व महर्षि अनन्दित का अभिवादन हू क्यि ।। शकुन्तला कर जोरि पिता सो हिय सकुचाती। कह्यो-"विनय परियो-कछु है पै नहिं पहि आती।।' घोले षण्व--"वहो, जो कुछ तुमको बनो है।" शकुन्तला ने कह्यो-"सखी-सग मोहिं रहनो है । इन ससियन के बिना अहा हम अति दुख पायो।" कण्व "अस्तु" कहि, सपको अति आनन्द बढायो । कञ्चन कक्न किकिनि का चलनाद सुनावत । नन्दन-फानन युसुमदाम सौरभ सो छावत॥ निज अमन्द सुचिचन्द-वदन सोभा दिखरावत । जगमगात जाहिरहि जवाहिर को चमकावत ॥ निज अनूप अति ओपदार आभा दिखरावत । चञ्चल चीनाशुक अञ्चल को चलत उडावत ।। पेश कदम्बन कलित कुसुम-कलिका विखरावत । मन्जु मेनका को देख्यो सब उतरत आवत । यथा उचित अभिवादन सव ही कियो परस्पर । शकुन्तला माता सो लपटी अतिहि प्रेम भर ।। भरत चन्द्रमुख चूमि भइ वह हिय सो हरपित । प्रियम्बदा-अनुसूया सिर कीन्हो कर परसित ।। कण्व दियो आसीस जाहु सव सुख सो रहियो । जीवन के सव लाभ प्रेम परिपूरित लहियो ।। चिर बिछुरे सब मिले हिये आनन्द बढावन । मालिनि-तरल-तरग लगी मगल को गावन ।। प्रसाद वाङ्गमय ॥ २२॥