पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/८९

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कहो"प्रिया को विरह, तुमहिलसि सबहि बिसारी किन्तु वत्स यह वीरसम्म, कुलप्रथा हमारी ।। सो अब तुमहि त्राण की आशा हिय महं धारौ । काहि समपहुँ तुमहिं, चित्त नहिं कुछ निरधारी ॥' आयो तहं इक भील-यूथपति दुहुँ करजोरे। चरनन पै सिरनाइ, कह्यो अति वचन निहारे- "महाराज | यह राजकुवर हमको दै देहू । राखेंगे प्रानन प्यारे को सहित सनेहू ॥ अनुज एक सह भील, सैन्य आज्ञा पालन को। आपहि की सेवा मे है सेना चालन को ।। हिम गिरि कटि महँ, इनका लै हमहूँ चलि जैहैं। शनु न कोक इनको, सोजनते । कहुँ पैहैं । जव हम सुनिहैं विजय आपकी तो पुनि ऐहैं। कीन्हें नेक बिलम्ब न याम कछु फल ह हैं । "अस्तु' क्ह्यो पुनि शिरहि सूघि आलिंगन की हो। बालक को मुख चूमि, तुरत भीलहि दे दीन्हो । "दादा" कहि अकुलाइ उठ्यो तरही वह बालक । नैनन मो भरि नीर को नरगन के पालक 11 "दादा' येही है तुम्हरे, इनही पो कहियो । मेरे जीवन प्रान, मदाही सुखसे रहियो ।।" या कहि के मुस फेरि, अश्व पै निज चडि लीन्हो । सीचि म्यानते सड्ग, युद्ध समुख चलि दीन्हो ।। आवतही नरनाह, देखि सब छत्री सेना। अति उमगित भइ अग आनद अटैना ।। वीर वृद्ध महराज, बदन पर हासी रेसा । सव को हिय उत्साहित कीन्हा सव ही देसा ॥ जयतु जयतु महराज, क्ह्यो तव सवही फौजें। जलधि वीर रस मे, ज्या उडि उठी बहु मोजें। फरनि उठे भुजदण्ड, वीर रससा उमगाहे । चमक उठी तरवार, वम्म अरु चम सनाह ।। सैना करि कै भाग, एक सैनप को सौंप्यो। अरु एकहि ले आप अकेले रनको रोप्यो। प्रमाद वाङ्गमय।॥२४॥