पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/९०

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शनुन ऊपर। . तव हर हर कहि कीन्ह्यो धावा गरड करत जिमि धावा, पन्नग प्रवल चमू पर ।। भिडे वीर दुहुँ ओर चली, कारी तरवाएँ । एक वीर सिर हेतु, अप्सरा तन मन वारें। दावि लियो क्षतीन, यवन के सब सेना को । भागन को नहिं राह, घेरि लीन्हो सर नाको। विकल क्यिो तरवार मारमो व्यथित भये सन । भागे यवन अनेक, लखें जहँही अवसर जर ।। है रणमत्त परे तवही सब पीछे छनी॥ तुरतहिं मार ताहि, जनहि देखें कोउ अत्री । परि कादरता क्छुर, यवन जे रन सो भागे । तेक मिलि तर लीन्ह्यो, घेरि वीर पथ त्यागे ।। उन क्षत्रिन सग महाराज, तिनमह पिरि गयक । सेनापति तह तिनहि, छुडावन को नहिं अयक ।। अहो । लोभ बस करत, काज से नर नारी । करत आत्म-मर्यादा, धम्म सवहि को वारी ।। रापत पछु। विचार नही यह पुय पाप सो। तृष्णा को मीचत, नर नित आस "भाप" सो।। नित्य परत जो पालन, तामो परत महाछल । यह विधि परत उपाय, वढाउन यो अपनो बल ।। चाहत जासो जोन, परावत है यह तामो। याको कोउ जीतत नहिं हारे सर यामी ।। परिपे वीर उम्मयर लरिने निज अरगिन सो। रापि स्वधर्म महान, टर्यो नहिं अपने पन सो ॥ मारि म्लेच्छनम परि, अनूप वर योर याम को। सूर्यापेतु तब गये, सुगद निज अस्तधाम यो॥ विश्वम्भर पे शान्त र पहें बायय रीन्हों। बागुतोष राय वा शान्ति अभिनव तेहि दोहा॥ "भारमभूमि पय तुग, पशुपम मान । भये जहा यह राा, अतुल महान ।। चियापार ॥२५॥