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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/९१

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भये नृपति जह इक्ष्वाकु वलवान । जहा प्रियव्रत जनमे, विदित जहान ।। भये नृपति सिरमौर जहा दुप्यत । जन्म लियो जहँ भरत सुकीति अनन्त ।। जम्बूद्वीपहिं बाट्यो, करि नवसण्ड । निज नामते बसायो, भारतसण्ड ।। जिनके रथ सहसारथि, नभला जाहि । जिनके भुजवल-सागर को नहिं थाहि ।। जिनके शरण लहे, निर्विघ्न सुरेश । अमरावती विराजहिं, चार हमेश ।। जिनके प्रत्यञ्चा की, सुनि टनकार । अरिशिर मुकुटमणिन को सहै न भार ।। भये भीष्म रणभीम, हरण अरिदप । जामदग्निते रच्यो समर परि दप ॥ जिनकी देव प्रतिज्ञा को सुख्याति । गाइगाइ नहिं वाणी अजहुँ अधाति ।। विजय भये जिन भये पराजय नाहिं । जिनके भुजवल ते, प्रसन्न ह्र चाहि ॥ दियो पाशुपत व्योमकेश निपुरारि । किया दिग्विजय डारयो शनुन मारि ॥ जिनके क्रोध अनल मह, सुवा नराच । आहुति अक्षौहिणी, भई सुनु साच ।। वसुन्धरे तव रक्त--पिपासा धन्य । मरी जहा चतुरगिनि सैन अगन्य ॥ करि पुकम्म यह जब वह, क्षनी-फुल-बलक-अति । सेनापति यवन के, सैनप पह निशक मति ॥ गयो लेन निज पुरस्कार, तव सव उठि धाये । मातृ भूमि द्रोही कहि, अति उपहास बनाये ॥ तब अति क्षुब्ध चित्त, गृहको वह लौटन लाग्यो । देस्यो गृह के द्वार, एक बाला मन पाग्यो । प्रसाद वाङ्गमय ॥ २६॥ - .