पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/९२

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गृह मे देरयो नाहिं कोउ अति कुण्ठित भो हिय । ललिता को लोन्ह्यो उठाइ, अरु मुख चुम्वन किय ॥ रोइ कहन लागी वाला, तव अति दुख सानी। छाडि मोहि जननी हू, गई कहा नहिं जानी ॥" पुनि लखि वाला कर मह, पन एक अति आकुल । लीन्हो ताहि पढन को, तब वह सैनप व्याकुल ॥ पढ्यो ताहि "नहि अहौ-अहो तुम पती हमारे । तुम्हरे सन्मुख महाराज, किमि स्वग सिधारे ॥ तुम आशा मय वाला को, लीन्हे हिय पोयो । तुमहि क्षमा हित स्वग-मांहि महराजहिं तोसौ ॥ वह निराश निज हृदय, लिये तवही कुलघालक । कोन्ही उत्तर गमन, तबै सेना को पालक॥ कृष्णा वी नव तरल वीचि, अति कृष्णा लागे। अरु वह मलयजपवन नाहिं बहि हिय अनुरागै ॥ चित्राधार ॥२७॥