पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/९५

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छाया सो - 2 नील समुज्ज्वल गगन, नील तरचर को थेनी। नीलिमा-मयी सुरमरि सुपदेनी ॥ हँसत सुधावर तामे, रसि प्रतिविम्य मनोहर । लखि स्वरूप गरिता, आरसी ज्या निज भुसवर ।। अमर तरगिनि पुलिन, सिला पर युगल सुधाकर । चन्द्रकेतु ललिता, सेवत समीर सुखमावर॥ भील बालमन की अवली, नीरद की पाती। घिरि बैठे हैं एक सग, अति छटा लपाती॥ भील बाल इक बोत्या, "सुनिये सखा हमारे । आजु मनोहर निशा, परी क्रीडा मिलि प्यारे॥ च द्रवेतु ललिता को, साज राजा रानी । अर सर सहचर प्रजा, आमात्य, सैन्य, सैनानी ॥ दुगुम पलिनसा गाछि, मनोहर भुकुट बनाई। ललित मल्लिका हार, दिया गलमह पहिराइ ।। कामल रिसलय रासि, मिलहि सिंहासन साज्यो चद्रकेतु राजा वनि, ललिता-मह तहँ राज्यो। छोटे तीर कमान लिये, छोटे सब बालक । छोटी सैन्य सजाइ, वडे तहं सेना पालक । भील बाल मिलि राज, साज अति सुघर सजायो । चन्द्रवेतु ललिताहूँ, तिनमह मिलि सुस पायो । कोउ कहत "अब सर हम, बन आखेट करेंगे। अर नहिं जन काहूसों, अब हम कहुँ डरैगे॥' कोउ कहत "अब पथिरन कहें निभय लूटेगे। ऐमो राजा पाय, महोत्सव म जूटेंगे।' चन्द्रकेतु सुनि ये बातें बोत्यो अकुलाई। "तुम सब क्यो पापाणहृदय, वैसी कठिनाई ॥ अहो ल्सो यह विश्वेश्वर की सृष्टि अनूपम । शिवस्वरुप तिनमाहि, विराजत रखि सवही सम ।। यह विराट ससार तासु, अव्यक्त रूप है। यामे जगन की आभा, राजत अनूप है। शान्तिमयी दिग्वस्त्र सहित वह मनहर मूरति । चिताभस्म तममय, पै गुचि हिमगिरिसो पूरति ॥ प्रसाद वाङ्गमय॥३०॥