पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 1.djvu/९७

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वोत्यो तापस आशिप-मह आनंद हिय भर फो। चवेतु के परपे धरि, रलिता के कर यो। "वनदेवी स्वर्गीया-सुसमा लरिता तू है । यह अनुरूप कुमार-हेतु सब लायक तू है। येहि सो तुम दोनो मिलि, प्रेम सुगाठिहि वाघो । तिज सुकुमार हृदय-मह पेमहि को आराधो ।। गगा यमुना के संगम सो प्रेम की धारा। सो सीचो या वन्य देश को मधुर अपारा ॥ ईश पाते नवविद्या, इन महें परचारो। हा असभ्य भीलन मह राज्य थापि विस्तारो॥ "जय राजा को" जय रानी की घोले वाल्व । तव हंगि घोले भील वृद्ध बालक वे पालव ।। "स्थ्यकेतु निज सुतहि, निसानी सम मा हि दोनो। आजु मिली जोडी विधि, यह अति सुन्दर कोनो ॥" "च द्रोतु मम स्वामी सुत, धन धन विश्वेश्वर । चिरजोन मम वत्म, होहु तुम श्रीराजेश्वर ।। दृग उठाइ लखि व्योम, पहयो तापस कर जोरे । "नाथ दास तुम्हरो यह, पोन्ही पाप धनेरे ॥ क्षमा करहु अव कोप दृष्टिते नहिं मा हि देयो । निज सुत भी सुत पत्नी को कृपया अवरेसो ॥ सहित स्नेह पुनि कह या, "सुपद" तुम सुसमो रहिये । क्षमा प्राथना करन मोहि, ईश्वर सों पहिये ॥' चन्द्रकेतु ललिता तब, दोना कर घर लीनो । यह यो “अवज्ञा भई कौन, जो तुम तजि दीनो ॥ भीलहि लपि पुनि वह यो, “यतन हमहूँ ते परिहैं। लहि इक्न्त हम यम्म हेतु अनुतापहि जरिह ॥" या कहि तापस दोनो के मिर पर कर रारयो। "विश्वेश्वर अन क्षमहु" अमृतमय मुससो भारयो । चद्रकेतु को रतन, जटित सिर मुकुट पिन्हायो । ललिता को मौक्तिका हार, गलमह अतिभायो । पहिरतही वह रतन मुकुट मोती की माला । अद्भुत् परिवत्तन को वारयो चालक वाला ॥ प्रपाद पाहमय ॥ ३२॥