पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१३०

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विचार-मागर म इवती-उतराती हुई, घण्टी आज मौलमिरी के नीचे एक शिला-प्रण्ड पर बेटी है । वह अपने मन स पूछती थी-विजय कौन है, जो मैं उम रसालवृक्ष समझकर लता के ममान लिपटी है। फिर उस आप-ही-आप उत्तर मिलता--ता और दूसरा कोन है मेरा ? लता का ता यही धर्म है कि जा ममीप अवलम्बन मिले, उस पकडले और इम सृष्टि म मिर ऊंचा कर खडी हो जाय । अहा । क्या मेरी माँ जीवित है ? पर विजय तो चित्र बनाने में लगा है । वह मरा ही ता चित्र बनाता है, तो भी मैं उसके लिए निर्जीव प्रतिमा है। कभी-कभी वह सिर उठाकर मेरी भौहो के गुकाव का, वपोलो के गहरे-रग का देख नता है और फिर तूलिका सीमार्जनी से उम हृदय के बाहर निकाल देता है । यह मरो आगधना ता नही महमा उमा विचारा म बाधा पड़ी। बाथम न आर घण्टा म कहा-चया मैं कुछ पूछ सकता हूँ? कहिये--सिर या कपडा मम्हालत हुए घण्टी न कहा। विजय म आपकी क्तिन दिना की जान-पहचान है? बहुत थोडे दिना की यही वृन्दावन म । नभी वह कहता था-- कोन क्या कहता था दारोगा । यद्यपि उसका माहस नही था कि मुझस कुछ अधिव कहे पर उसका अनुमान है कि आपको विजय कही स भगा लाया है। घण्टी किमी की कोई नही है, जो उसका इच्छा होगी वही करेगी । मैं आज ही विजय वा स कहूंगी कि वह मुझ लेकर किसी दूसरे घर म चले । --वाथम न देखा कि वह स्वतन्त्र युवती तनकर खड़ी हो गई। उसकी नस फूल रही थी। इसी ममय लतिका ने वहां पहुंच कर एक काण्ड उपस्थित कर दिया । उमन बाथम की ओर तीक्ष्ण दृष्टि से देखते हुए पूछा-तुम्हारा या आभप्राय था? १०० प्रसाद वाङ्मय