पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१३१

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सहसा जाक्रान्त होकर वाथम न कहा-~कुछ नही । म चाहना था कि यह ईसाई होकर अपनी रक्षा कर ल क्याकि इसर बात काटकर लतिका न कहाआर यदि में हिन्दू हा जाऊ ? वाथम न फंसे हुए गल स कहा-दाना हो सकता है । पर तुम मुव क्षमा करागी लतिका ? बाथम क चल जान पर लतिका न दखा कि अकस्मात् अन्धड क समान यह वातो का योका आया और निकन गया। ____घण्टी रो रही थी। लतिका उसक आमू पाती थी। बाथम के हाथ का हार की अंगूठी सहसा घण्टी की उँगलिया म लतिका न दखी आर वह चाक उठी। तिका का कामल हृदय, कठोर कल्पनाआ स भर गया। वह उस छाड कर चना गई। चादनी निकनन पर घण्टी जाप म आई । जव उसकी निस्सहाय अवस्था स्पप्ट हो गई। वृन्दावन की गलिया म या ही फिरन वाली घण्टी, इन कई महीना को निश्चिन्त जीवनचया स एक नागरिक महिला बन गई थी। उसक रहन सहन बदल गय थे । हाँ एक बात जार उसक मन म खटक्न लगी थी -वह जब की कथा । क्या सचमुच उसको भा जीवित ह ? उसका मुक्त हृदय चिन्ताजा का उमसवाली सध्या म पवन क समान निरुद्ध हा उठा । वह निरीह बालिका व समान फूट-फूटकर रान लगी। सरला न आकर उस पुकारा-घण्टी, क्या यही वैठी रहागी?—उसन सिर नीचा किए हुए उत्तर दिया- अभी आती हू । सरना चली गइ । कुछ कान तक वह बैठी रही, फिर उसी पत्थर पर अपन पैर समटकर बह लट गई । उसकी इच्छा हुई---आज ही यह घर छोड द पर वह वैसा न कर सकी । विजय का एक बार अपनी मनोव्यथा मुना दन की उस वढी लालसा थी। वह चिन्ता करत करत सो गई। विजय जपन चिना का रखकर जाज बहत दिना पर मदिरा का सवन पर रहा था। शीश के एक वड ग्नास मसाडा और बरफ स मिनी हुई मदिरा सामन मज से उठाकर वह कभी-कभी दो घूट पी लता है । धीर धीर नशा गहरा हा चला, मुह पर लाली दौड गई । वह अपनी सफलताओ म उत्तेजित था । जकस्मात् उठकर बंगल स बाहर नाया, बगीच म टहलन लगा। घूमता हुआ वह घण्टी क पास जा पहुचा । अनाथा-सी घण्टी अपन दुखा म लिपटी हुई दाना हाथा स अपन घुटन लपटे हुए पड़ी थी। वह दीनता की प्रतिमा थी। क्ला वानी आखा न चाँदनी रात म यह दखा। वह उसके ऊपर झुप गया, उस प्यार कर ककाल १०१