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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१४४

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पिछले दिनो में मैंने पुरुपोत्तम की प्रारम्भिक जीवनी सुनाई थी, आज सुनाऊंगा उनका सन्देश । उनका सन्देश था-आत्मा को स्वतन्त्रता का, साम्य का, कर्मयोग का और बुद्धिवाद का । आज हम धर्म के जिस ढांचे को-शव का-- घेर कर रो रहे है, वह उनका धर्म नही था। धर्म को वे बडी दूर की पवित्र या डरने की वस्तु नही बतलाते थे। उन्होने स्वर्ग का लालच छोडकर रूडियो के धर्म को पाप कहकर घोषणा की। उन्होंने जीवन्मुक्त होन का प्रचार किया। नि स्वार्थ भाव से कर्म की महत्ता बतायी और उदाहरणो से भी उसे सिद्ध किया। राजा नही थे , पर अनायास ही वे महाभारत के सम्राट् हो सकते थे, पर हुए नही । सौन्दर्य, बल, विद्या, वैभव, महत्ता, त्याग कोई भी ऐम पदाथ नही थे, जो उन्ह अप्राप्य रहे हो । वे पूर्णकाम होने पर भी समाज क एक तटस्थ उपकारी रहे। जगल के कोने में बैठकर उन्हाने धर्म का उपदेश कापाय ओढकर नही दिया, वे जीवन-युद्ध के भारथी थे। उसकी उपासना-प्रणाली थी-किमी भी प्रकार चिन्ता का अभाव हाकर अन्त करण का निर्मल हा जाना विकल्प और मकल्प में शुद्ध-बुद्धि की शरण जानकर कर्तव्य निश्चय करना। कर्म-कुशलता उसका योग है। निष्काम कर्म करना शान्ति है। जीवन-मरण म निर्भय रहना, लोकसेवा करते रहना, उनका सन्देश है । वे आर्य सस्कृति के शुद्ध भारतीय सस्करण है। गोपालो क सग वे पले, दीनता की गाद म दुलार गय । अत्याचारी राजाओ के सिंहासन उलटे-कराडो बलोन्मत्त नृशसो के मरण-यज्ञ म व हंसने वाल अध्वर्यु थे । इम आर्यावर्त का महाभारत बनानवाले थे—वे धर्मराज के सस्थापक थे । सबकी आत्मा स्वतत्र हो इमलिए, समाज की व्यावहारिक वाता को व शरीर-कर्म कहकर व्याख्या करते थे—क्या यह पथ सरन नहीं, वया हमारे वर्तमान दु खो म वह अवलम्बन न होगा? सब प्राणियो स निर्वैर रखने वाला शान्तिपूर्ण शक्ति-सवलित मानवता का ऋजु पथ, क्या हम लोगा के चलन याग्य नही है । समवेत जनमण्डली ने कहा है, अवश्य है । हाँ, और उसमे कोई आइम्बर नही । उपासना के लिए एकान्त निश्चिन्त अवस्था, और स्वाध्याय के लिए चुने हुए श्रुतियो के सार-भाग का सग्रह, गुणकर्मों से विशपता और पूर्ण आत्मनिष्ठा, सब की साधारण समता—इतनी ही तो चाहिए । कार्यालय मत बनाइए, मित्रा के सदृश एक-दूसरे को समझाइए, किसी गुरुडम की आवश्यकता नहीं। आर्य-सस्कृति अपना तामस त्याग झूठा विराग छोडकर जागेगी । भूपृष्ठ के भौतिक देहात्मवादी चौक उठगे । यान्त्रिक सभ्यता के पतनकाल म वही मानव जाति का अवलम्बन होगी। ११४ . प्रसाद वाड्मय