पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/१५७

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है और स्त्रियो को भरना पडता है। तब, इधर-उधर देखने से क्या । 'भरना है'यही सत्य है, उसे दिखावे के आदर से ब्याह करके भरा लो या व्यभिचार कहकर तिरस्कार से। अधमर्ण की सान्त्वना के लिए यह उत्तमर्ण का शाब्दिक भौखिक प्रलोभन या तिरस्कार है । समझे ? घटी न कहा । विजय का नशा उखड गया। उसने समझा कि मै मिथ्या ज्ञान को अभी तक समझता हुआ अपने मन को धोखा दे रहा है। यह हंसमुख घण्टी ससार के मब प्रश्नो को सहन किये बैठी है। प्रश्नो को गम्भीरता से विचारने का मै जितना ढोग करता हूँ उतना ही उपलब्ध सत्य से दूर होता जा रहा हूँ-वह चुपचाप माचने लगा। घण्टी फिर कहने लगी--समझे विजय ! मै तुम्हे प्यार करती हूँ। तुम व्याह करके यदि उसका प्रतिदान किया चाहते हो ता भी मुझे कोई चिन्ता नही । यह विचार तो मुझे कभी सताता ही नहीं । मुझे जो करना है, वही करती हूँ करूँगी भी । धूमोगे घूमूगी, पिलाआगे पीऊँगी दुलार करोग हँस लूंगी, ठुकराओग रा दूगी। स्त्री को इन सभी वस्तुओ की आवश्यकता है। मैं इन सवा को ममभाव से ग्रहण करती हूँ और करूंगी। विजय का सिर घूमने लगा। वह वाहता था कि घण्टी अपनी वक्तृता जहा तक सम्भव हा शोघ्र बन्द कर द । उसने कहा-अब तो प्रभात होने म विलव नही, चलो कही किनारे उतरे और हाथ-मुंह धो ल ।। घण्टी चुप रही । नाव तट की आर चली। इसके पहले ही एक दूसरी नाव भी तीर पर लग चुकी थी, परन्तु वह निरजन की थी। निरजन दूर था, उसन दखा-विजय ही तो है | अच्छा दूर-दूर रहकर इसे देखना चाहिए, अभी शीघ्रता से काम बिगड जायगा। विजय और घण्टी नाव से उतरे । प्रकाश हो चना था। रात की उदासीभरी विदाई जोस के आँसू बहान लगी। कृष्णशरण की टेकरी के पास ही वह उतार का घाट था। वहाँ कवल एक स्त्री प्रात स्नान के लिए अभी आई थी। घण्टी वृक्षा को झुरमुट में गई थी कि उसक चिल्लाने का शब्द मुन पडा । विजय उधर दौडा, परन्तु घण्टी भागता हुई उधर ही आती दिखाई पडा। अब उजला हो चना था। विजय न दखा कि वही तांग वाला नवाब उस पाडना चाहता है । विजय न डॉटकर कहा-वडा रह दुष्ट ! नवाव अपने दूसरे माथी क भरोस विजय पर टूट पड़ा। दोना स गुत्थमगुत्था हो गया। विजय के दोनो पर उठाकर वह पटकना चाहता था और विजय न दाहिन बगल में उसका गला दबा लिया था, दोना और स पूर्ण वल-प्रयोग हो रहा था कि विजय का पैर उठ जाय ककाल १२७