पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/२२४

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मगलदेव के पास आय, तब गाला बैठी पखा झल रही थी। उन्हे देखकर वह सकोच से उठ खडी हुई । गोस्वामीजी ने कहा-सेवा सबसे कठिन व्रत है देवि । तुम अपना काम करो। हा मगल | तुम अब अच्छे हो न । कम्पित कठ स मगल ने कहा- हाँ, गुरुदेव । अब तुम्हारा अभ्युदय-काल है, घबराना मत | कहकर गोस्वामीजी चले। गये। दीपक जल गया। आज अभी तक सरला नही आई। गाला को बैठे हुए बहुत विलम्ब हुआ । भगल न कहा—जाओ गाला, सध्या हुई, हाथ-मुंह तो धो लो, तुम्हारे इस अथक परिश्रम स मैं कैस उद्धार पाऊंगा । ___गाला लज्जित हुई। इतने सम्भ्रान्त मनुष्य और स्त्रियो के बीच आकर कानन-वासिनी ने लज्जा सीख ली थी। वह अपने स्त्रीत्व का अनुभव कर रही थी। उसके मुख पर विजय की मुस्कुराहट थी। उसन कहा-अभी माँ जी नही आई, उन्हे बुला लाऊँ। —कहकर सरला का खोजने के लिए वह चली । सरला मौलसिरी के नीचे बैठी सोच रही थी-जिन्हे लोग भगवान् कहते हैं, उन्ह भी माता की गोद से निर्वासित होना पड़ा था। दशरथ न ता अपना अपराध समझकर प्राण-त्याग दिया, परन्तु कौशल्या कठोर होकर जीती रहीजीती रही श्रीराम का मुख देखने के लिए । क्या मेरा भी दिन लौटेगा ?-~क्या मैं इसी से अब तक प्राण न दे सकी । गाला ने सहसा आकर कहा-चलिये । दोनो मगल की कोठरी की ओर चली । मगल के गले के नीचे वह यत्र गड रहा था। उसने तकिया स उसे खीचकर बाहर किया। मगल न देखा कि वह यत्र उमी का पुराना यत्र है । वह आश्चय स पसीने-पसीने हो गया। दीप के आलोक में उसे वह देख ही रहा था रिसरला भीतर आई। सरला को बिना दम ही अपने कुतूहल म उसन प्रश्न किया-~~-यह मेरा यत्र इतन दिनो पर कौन लाकर पहना गया है, आश्चय है । सरला ने उत्कण्ठा स पूछा-तुम्हारा यन्त्र कैसा बटा । यह तो मैं एक साधु से लाई हूँ। मगल न सरल आँखा से उसकी ओर दखकर कहा-- मां जो, यह मेरा ही यन्त्र है, मैं इसे बराबर वाल्यकाल म पहना करता था । जब यह खा गया, तभी से दुख पा रहा हूँ। आश्चर्य है, इतने दिना पर यह कैसे आपको मिल गया । सरला के धैर्य का बांध टूट पड़ा। उसन यन्त्र को हाथ में लेकर दवा १६६ प्रसाद वाङ्मय