पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/२५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

इन्द्रदेव ने पूछा-तुम्हारा नाम 'शैला' है न? 'हाँ' कहकर फिर वह चुपचाप सिर नीचा किय अनुसरण करने लगी। इन्द्रदेव ने फिर ठहरकर पूछा-कहाँ चलोगी? भोजनालय मे या हम लोगा के मेस में? 'जहाँ कहिए' कहकर वह चुपचाप चल रही थी। उसकी अविचल धीरता से मन-ही-मन कुढते हुए इन्द्रदव मेस की ओर ही चले। ___ उस मेस मे तीन भारतीय छात्र थे। मकान वाली एक बुढिया थी। उसके किये सब काम होता न था। इन्द्रदेव ही उन छात्रा के प्रमुख थे। उनकी सम्मत से सब लागो ने 'शेला' को परिचारिका-रूप में स्वीकार किया। और, जब शैला से पूछा गया, तो उसने अपनी स्वाभाविक उदार दृष्टि इन्द्रदेव के मुंह पर जमाकर कहा यदि आप कहते है तो मुझे स्वीकार करन म कोई आपत्ति नहीं है। भिखमगिन होने से यह बुरा तो न होगा। __इन्द्रदेव अपने मित्रो के मुस्कराने पर भी मन-ही-मन सिहर उठे । बालिका के विश्वास पर उन्हे भय मालूम होने लगा। तब भी उन्होन समस्त साहस बटोर कर कहा-ौला, कोई भय नहीं, तुम यहाँ स्वय सुखी रहोगी और हम लोगो की भी सहायता करोगी । मकान वाली बुढिया ने जब यह मुना, तो एक बार झल्लाई । उसने शैला के पास जाकर, उसकी ठोढी पकडकर, आँखे गडाकर, उसके मुंह का और फिर सारे अग को इस तीखी चितवन से दखा, जैसे कोई सौदागर किसी जानवर को खरीदन से पहले उस देखता हो। किन्तु शैला के मुंह पर ता एक उदासीन धैर्य आसन जमाये था, जिसको कितनी हो कुटिल दृष्टि क्यो न हा, विचलित नही कर सकती। बुढिया ने कहा-रह जा वटी, य लोग भी अच्छे आदमी है । शैला उसी दिन से मेस में रहने लगी। भारतीयो के साथ बैठकर वह प्राय भारत के देहातो, पहाडी तथा प्राकृतिक दृश्या के सम्बन्ध में इन्द्रदव से कुतूहलपूर्ण प्रश्न किया करती। बैरिस्टरी का डिप्लोमा मिलने के साथ ही इन्द्रदेव का पिता के मरने का शाक-समाचार मिला । उस समय शैला की सान्त्वना और स्नहपूर्ण व्यवहार न इन्द्रदेव के मन का बहुत कुछ बहलाया । मकान वाली बुढिया उस बहुत प्यार करती, इन्द्रदेव क सद्व्यवहार और चारित्र्य पर वह बहुत प्रसन्न थी । इन्द्रदेव ने जब शैला को भारत चलन के लिए उत्साहित किया, तो बुढिया ने समर्थन किया । इन्द्रदेव क साथ शैला भी भारत चली आई। २३० : प्रसार वाङ्मय