पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/२५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

इन्द्रदेव ने शहर के महल में न रहकर धामपुर के बंगले में ही अभी रहने का प्रवन्ध किया। अभी धामपुर आये इन्द्रदेव और शैला को दो सप्ताह से अधिक न हुए थे। इगलैण्ड से हो इन्द्रदेव ने शैला को हिन्दी से खूब परिचित कराया। वह अच्छी हिन्दी बोलने लगी थी। देहाती किसानो के घर जाकर उनके साथ घरेलू वाते करने का चसका लग गया था। पुरानी खाट पर बैठकर वह बडे मजे में उनसे वाते करती, साडी पहनने का उसने अभ्यास कर लिया था और उसे फवती भी अन्छी। शैला और इन्द्रदेव दोनो इस मनोविनोद से प्रसन्न थे । वे गगा के किनारेकिनारे धीरे-धीरे बात करते चले जा रहे थे । कृपक-बालिकाएँ बरतन मांज रही थो। मल्लाहो के लड़के अपने डोगी पर बैठे हुए मछली फंसाने की कटिया तोल रहे थे। दो-एक बडी-बडी नावें, माल से लदी हुई, गगा के प्रशात जल पर धीरेधोरे सन्तरण कर रही थी। वह प्रभात था ! शैला बडे कुतूहल से भारतीय वातावरण मे नीले आकाश, उजली धूप और सहज ग्रामीण शान्ति का निरीक्षण कर रही थी। वह बाते भी करती जाती थी। गगा को लहर से मुन्दर कटे हुए बालू के नीचे करारो में पक्षियो के एक सुन्दर छोटे-से झुड का विचरते देखकर उसने उनका नाम पूछा ! इन्द्रदेव ने कहा- ये सुांव हैं, इनके परो का तो तुम लोगो के यहा भी उपयोग होता है। देखो, ये कितने कोमल है। यह कहकर इन्द्रदेव ने दो-तीन गिरे हुए परा को उठाकर शैला के हाथ में दे दिया। 'फाइन' !-नही-नही, माफ करो इन्द्रदेव | अच्छा, इन्हे कहूँ ? कोमल । मुन्दर !-कहती हुई, शैला ने हँस दिया । शैला | इनके लिए मेरे देश में एक कहावत है । यहाँ के कवियों ने अपनी कविता में इनका बड़ा करुण वर्णन किया है। -गम्भीरता से इन्द्रदेव ने कहा । क्या? इन्हे चक्रवाक कहते है । इनके जोडे दिन-भर तो साथ-साथ घूमते रहते है, किन्तु संध्या जव होती है, तभी ये अलग हो जाते हैं। फिर ये रात-भर नही मिलने पाते। कोई रोक देता है क्या? प्रकृति; कहा जाता है कि इनके लिए यही विधाता का विधान है। तितली: २३१