पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/२८१

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गगा की लहरियो पर मध्याह्न के मूय की किरणे नाच रही थी । उन्हें अपने चचल हाथो स अस्त-व्यस्त करती हुई, कमर-भर जल में खडी, मलिया छीटे उडा रही थी। करारे के ऊपर मल्लाहा की छोटी-सी वस्ती थी। सात घर मल्लाहा और तीन घर कहारो के थे। मलिया और रामदीन का घर भी वही या । दापहर को छावनी से छुट्टी लेकर, दोनो ही अपने घर आये थे। रामदीन करारे से उतरता हुआ कहने लगा-मलिया, मैं भी आया । मनिया हंसकर बोली- मैं तो जाती हूँ। जाओगी क्या ? थाह --~-कहते हुए रामदीन 'धम' से गगा मे कूद पड़ा । योडी दूर पर एक वुड्ढा मल्लाह वसी डाले बैठा था, उसने क्रोध से कहादखो रामदीन, तुम छावनी के नौकर हो, इसस में डर न जाऊँगा। मछली न फंसी, तो तुम्हारी दुरी गत कर दूंगा। तैरते हुए रामदीन ने कहा-अरे क्यो बिगड रहे हो दादा । आज कितने दिना पर छुट्टी मिली है । ऊधम मचान अब कहाँ आता हूँ। तैरते हुए तीर की ओर लौटकर उसने मलिया के पास पहुंचन का ज्या ही उपक्रम किया, वह गगा से निकलने लगी। रामदीन न कहा-अर क्या मैं काट नूगा ? मलिया, ठहर न । वह रुक गई। रामदीन ने धीरे स पास आकर पूछा-क्यो रे, तेरी सगाई पक्की हो गई ? उसने कहा-धत ! रामदीन न कहा-ता आज मैं तरे चाचा स कहूँ कि मलिया न बीच हा मवात काट कर कहा-दखो, मुझे गाली दागे तो हां, वह दता हूँ। क्या कह देतो है ? क्या मुझे डराती है? अब ता मुझे तरी बीबी रानी का डर नही । मलिया, तू जानती है छोटी कोठी में मम शाहव जब से आई है, तब तितली २५३