पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय खंड 3.djvu/३०१

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माधुरी इस आकस्मिक उद्घाटन से घबराकर दूसरी ओर देखने लगी थी? वह मन मे सोच रही थी मुझे क्या करना चाहिए? ___ माधुरी के जीवन म प्रेम नही, सरलता नही, स्निग्धता भी उतनी न थी। स्त्री के लिए जिस कोमल स्पर्श की अत्यन्त आवश्यक्ता होती है, वह श्यामलाल स कभी मिला नही । तो भी मन का किसी तरह सतोप चाहिये । पिता के घर का अधिकार ही उसके लिए मन बहलान का खिलौना था। वह भी जानती थी कि यह वास्तविक नही, तो भी जब कुछ नही मिलता तो मानव हृदय कृत्रिम को ही वास्तविक बनाने की चेष्टा करता है। माधुरी भी अब तक यही कर रही थी। चौवेजी कब चूकने वाले थे ! उन्हाने खासकर कहना आरम्भ किया-बडे सरकार सब समयते थे । विलायत भेजकर जो कुछ होने वाला था, वह सब अपनी दूर-दृष्टि से देख रहे थे। इसी स उहाने यह प्रवध कर दिया था तहसीलदार साहब ने इस ममय उसको प्रकट कर दिया । यह अच्छा ही किया । आगे आपकी इच्छा। __श्यामदुलारी ऊब रही थी, क्योकि सब कुछ जानते हुए भी वह नही चाहती थी कि उनकी दोनो सन्तानो मे भेद का बाजारोपण हा । इन स्वयसवक सम्मति दाताओ से वह घबरा गई। माधुरी न इस क्षाभ का ताड लिया । उमन कहा-इस समय तो आपका काम हो ही गया अब आप लोग जाइए । तहसालदार ने सिर झुकाकर विनयपूर्वक विदा ली। चौबेजी भी वाहर चले गये। श्यामदुलारी के मोन हो जाने से वहाँ का वातावरण कुठित-सा हा गया । माधुरी जैसे कुछ कहन म सकुचित थी। कुछ दर तक यही अवस्था बनी रही। फिर सहसा माधुरी ने कहा-क्या माँ | क्या सोच रही हो? यह भला कौन सी बात है इतनी सोचने विचारने को | य लोग तो ऐसी व्यर्थ की बातें निकालने में वडे चतुर है ही । तुमको तो यह काम पहले ही कर डालना चाहिए। किन्तु क्या कर डालना चाहिए उम साफ-साफ माधुरी ने भी अभी नहीं सोचा था । वह केवल मन बहलान वानी कुछ बातें करना चाहती थी। किन्तु श्यामदुलारी के सामने यह एक विचारणीय प्रश्न था। उन्होने सिर उठाकर गहरी दृष्टि से देखते हुए पूछा-क्या । माधुरी क्षण भर चुप रही, तो भी उसने साहस बटोरकर कहा-भाई साहब का नाम उस पर भी चढवा दो, झगडा मिटे । तितलो २७३ १८